स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि सामाजिक व्याधियों का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा, इसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा, मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। विवेकानन्द कहते हैं ‘‘समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षा-दान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी।’’
‘‘पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएँ बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो। आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोक शक्ति कहाँ है? उसी लोक शक्ति को संगठित करो। अतएव समाज-सुधार के लिए भी, प्रथम कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना। और जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’
शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। मानव में शक्तियाँ जन्म से ही विद्यमान रहती है। शिक्षा उन्हीं शक्तियों या गुणों का विकास करती है। पूर्णता बाहर से नहीं आती वरन् मनुष्य के भीतर छिपी रहती है। सभी प्रकार का ज्ञान मनुष्य की आत्मा में निहित रहता है। गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त अपने प्रतिपादन के लिए न्यूटन की खोज की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। वह न्यूटन के मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान था। जब समय आया तो न्यूटन ने केवल उसकी खोज की। विश्व का असीम ज्ञान-भंडार मानव मन में निहित है, बाहरी संसार केवल एक प्रेरक मात्र है, जो अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। पेड़ से सेव के गिरने से न्यूटन ने कुछ अनुभव किया और मन का अध्ययन किया। उसने अपने मन में पूर्व से स्थित विचारों की कड़ियों को व्यवस्थित किया और उसमें एक नयी कड़ी को देखा, जिसे मनुष्य गुरूत्वाकर्षण का नियम कहते हैं।
अतएव सभी ज्ञान, चाहे वह संसारिक हो अथवा परमार्थिक, मनुष्य के मन में निहित है। यह आवरण से ढ़का रहता है, और जब वह आवरण धीरे-ध् ाीरे हटता है, तो मनुष्य कहता है कि ‘‘मुझे ज्ञान हो रहा है।’’ ज्यों-ज्यों आवरण हटने की प्रक्रिया या आविष्कार की प्रक्रिया बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर यह आवरण पूर्णत: पड़ा रहता है, वह मूढ़ या अज्ञानी है और जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिल्कुल हट जाता है, वह सर्वज्ञानी मनुष्य हो जाता है। जिस प्रकार एक चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि निहित रहती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान निहित रहता है। उद्दीपक कारण ही वह घर्षण है, जो उठा ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है।
Shrimati Mithalesh Sharma
Chairman
Kashi Ram Ratan Immorable Shiksha Samiti- KRISS